गांधी की प्रासंगिकता के दस कारण ।

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अगले सप्ताह हम महात्मा गांधी के शहीद होने की 75वीं बरसी मनाएंगे। शहीद होने के इतने समय बाद गांधी क्या सचमुच प्रासंगिक हैं? इस आलेख में मैं 10 महत्वपूर्ण कारण पेश करूंगा कि 21वीं सदी के तीसरे दशक में गांधी, उनका जीवन और उनके विचार क्यों प्रासंगिक हैं।


गांधी की प्रासंगिकता का पहला कारण यह है कि उन्होंने एक अन्यायी शासन के विरोध का अहिंसक तरीका भारत और दुनिया के सामने पेश किया। 11 सितंबर, 1906 को जोहान्सबर्ग के एंपायर थियेटर में पहली बार सत्याग्रह का विचार तब सामने आया, जब गांधी के नेतृत्व में भारतीयों ने नस्लीय आधार पर बने भेदभावपूर्ण कानूनों के विरोध में सामूहिक गिरफ्तारी देने का फैसला लिया।

उसके ठीक 95 वर्ष बाद आतंकवादियों ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को ध्वस्त कर दिया। वस्तुत: 9/11 की ये दो घटनाएं हैं। एक में अहिंसक संघर्ष और व्यक्तिगत त्याग के जरिये न्याय मांगा गया, दूसरी में आतंक व ताकत के दम पर शत्रु को डराने की कोशिश की गई। इतिहास ने दिखाया कि अन्याय के खिलाफ प्रदर्शन में सत्याग्रह अधिक नैतिक होने के साथ तार्किक रूप से अन्य विकल्पों की तुलना में अधिक प्रभावशाली है।


गांधी की प्रासंगिकता का दूसरा कारण यह है कि वह अपने देश और उसकी संस्कृति से प्रेम करते थे और इसके विकृत गुणों की पहचान कर उन्हें दूर करने की कोशिश करते थे। इतिहासकार सुनील खिलनानी ने कहा है कि गांधी सिर्फ अंग्रेजों से ही नहीं लड़ रहे थे, भारत से भी लड़ रहे थे। अस्पृश्यता के खिलाफ उनका संघर्ष इस इच्छा से उपजा था कि भारतीयों को सच्चे अर्थों में स्वतंत्रता मिले। और नारीवादी न होने के बावजूद, उन्होंने महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में लाने के लिए बहुत कुछ किया।


गांधी की प्रासंगिकता का तीसरा कारण यह है कि हिंदू होने के साथ ही उन्होंने आस्था के आधार पर नागरिकता को परिभाषित करने से इनकार कर दिया। यदि जाति ने हिंदुओं को क्षैतिज रूप से विभाजित किया, तो धर्म ने भारत को लंबवत विभाजित किया। गांधी ने इन लंबवत, और अक्सर ऐतिहासिक रूप से विरोध करने वाले वर्गों के बीच पुल बनाने के लिए संघर्ष किया। हिंदू-मुस्लिम सद्भाव की तलाश उनकी स्थायी चिंता थी; वह इसके लिए जीये, और अंत में इसके लिए मरने को भी तैयार थे।


गांधी की प्रासंगिकता का चौथा कारण यह है कि गुजराती संस्कृति में डूबे होने और गुजराती गद्य के स्वीकृत गुरु होने के बावजूद वह संकीर्ण सोच वाले क्षेत्रवादी नहीं थे। भारत की धार्मिक और भाषाई विविधता के बारे में उनकी समझ प्रवासी भारतीयों के साथ बिताए वर्षों में गहरी हो गई थी, जब उनके करीबी साथी अक्सर हिंदुओं की तरह मुस्लिम या पारसी थे। उनमें गुजराती और तमिल भाषी भी थे। 


गांधी की प्रासंगिकता का पांचवां कारण यह है कि वह देशभक्त होने के साथ ही अंतरराष्ट्रीयतावादी थे। भारतीय सभ्यता की समृद्धि व उसकी विरासत की सराहना करते थे, साथ ही यह भी जानते थे कि बीसवीं सदी में कोई देश कूपमंडुक बना नहीं रह सकता। उनका अपना प्रभाव उतना ही पश्चिमी था, जितना कि भारतीय। उनके दार्शनिक और राजनीतिक दृष्टिकोण को गढ़ने में टॉलस्टॉय और रस्किन की जितनी भूमिका थी, उतनी ही गोखले और रायचंदभाई की। उन्होंने नस्लीय विभाजन के बीच गहरी मित्रता विकसित की; हेनरी और मिली पोलक, हर्मन कालेनबाख, और सीएफ एंड्रयूज-सभी ने उनके व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं।


गांधी की विरासत के इन पांच पहलुओं के बिना स्वतंत्र भारत ने शायद अलग राह चुनी होती। इसलिए क्योंकि गांधी ने हिंसा के बजाय संवाद को तरजीह दी, जिसने हमें एकल पार्टी वाले अधिनायकवादी राज्य (अधिकांश एशियाई और अफ्रीकी देशों जैसे) के बजाय बहुदलीय लोकतंत्र के रूप में उभरने में मदद की। इसलिए, क्योंकि गांधी और आंबेडकर जैसे लोगों ने लैंगिक और जातिगत समानता पर जोर दिया, जिससे इन सिद्धांतों को संविधान में शामिल किया गया। इसलिए, क्योंकि गांधी और नेहरू जैसे लोगों ने धार्मिक और भाषाई स्वतंत्रता पर जोर दिया, कई अन्य देशों के विपरीत भारत ने नागरिकता को एक श्रेष्ठ धर्म और एक श्रेष्ठ भाषा के आधार पर परिभाषित नहीं किया।


गांधी की प्रासंगिकता का छठा कारण यह है कि वह असामयिक पर्यावरणविद थे, जिन्होंने अनुमान व्यक्त किया था कि बेतरतीब विकास और उपभोक्तावाद इस ग्रह के लिए तबाही ला सकते हैं। दिसंबर, 1928 में उन्होंने लिखा, 'ईश्वर न करे भारत कभी पश्चिम जैसे औद्योगीकरण को अपनाए। एक छोटे से द्वीपीय साम्राज्य (इंग्लैंड) के आर्थिक साम्राज्यवाद ने आज दुनिया को जंजीर में जकड़ रखा है। यदि 30 करोड़ लोगों का एक पूरा देश इसी तरह का आर्थिक शोषण करता है, तो यह दुनिया का टिड्डियों की तरह सफाया कर देगा।'

यह असाधारण दूरदर्शिता थी, क्योंकि पश्चिम, चीन और भारत द्वारा अग्रेसित पूंजी, संसाधन और ऊर्जा की सघनता से लैस औद्योगीकरण का रास्ता वास्तव में दुनिया की बर्बादी की धमकी दे रहा है।


गांधी की प्रासंगिकता का सातवां कारण आगे बढ़ने और खुद में बदलाव लाने की उनकी क्षमता थी, क्योंकि वह नए अनुभवों से सीखते थे। गांधी का 1934 का एक उद्धरण है, 'मैं संगति का हौव्वा खड़ा नहीं करता। अगर मैं पल-पल खुद के प्रति सच्चा हूं, तो मुझे उन सभी विसंगतियों की परवाह नहीं है, जो मेरे चेहरे पर नजर आ सकती हैं।'


गांधी की प्रासंगिकता का आठवां कारण यह है कि उनमें अपने अनुयायियों में से नया नेतृत्व उभारने का कौशल था। वह प्रतिभा की पहचान करते थे, उसे तराशते और विकसित करते, फिर उसे खुद से आगे बढ़ने के लिए छोड़ देते थे। उनके उल्लेखनीय अनुयायियों में जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, सी राजगोपालचारी, जाकिर हुसैन, जेबी कृपलानी, सरला देवी (कैथरीन मैरी हेलिमैन) और कई अन्य थे।   


भविष्य के नेताओं को पोषित करने की गांधी की क्षमता स्वतंत्र भारत के तीन सबसे प्रभावशाली प्रधानमंत्रियों की ऐसा करने में असमर्थता के विपरीत है। चरित्र और राजनीतिक विचारधारा के संदर्भ में जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी आपस में बहुत भिन्न हैं। हालांकि, एक मामले में वे समान हैं-पार्टी, सरकार तथा राज्य को खुद के साथ पहचानने की प्रवृत्ति में। सत्ता के इस वैयक्तिककरण को इंदिरा ने नेहरू से कहीं आगे बढ़ाया और मोदी ने इसे भारत से भी आगे बढ़ाया।


गांधी की प्रासंगिकता का नौवां कारण है, विरोधियों के दृष्टिकोण को देखने की इच्छा के साथ उन तक पहुंचने और सम्मानजनक समझौता करने की उनकी तत्परता। इस तरह कई वर्षों तक उन्होंने धैर्य के साथ जिन्ना और आंबेडकर जैसे राजनीतिक विरोधियों, और दक्षिण अफ्रीका तथा भारत में सामंती शासकों के साथ साझा जमीन तलाशने की कोशिश की।


गांधी की प्रासंगिकता का दसवां कारण है उनके राजनीतिक जीवन की पारदर्शिता। कोई भी उनके आश्रम में आ सकता था; उनके साथ बहस कर सकता था; वास्तव में, जैसा कि अंततः हुआ, कोई भी उनके पास आ सकता था और उनकी हत्या कर सकता था। यह चाहे उनके समय के या हमारे समय के अन्य राजनीतिक नेताओं के सुरक्षा-ग्रस्त जीवन से कितना उलट है!


मैंने गांधी के जीवन के जिन पाठों को यहां रेखांकित किया है, वे जरूरी नहीं कि सिर्फ इस देश के लिए प्रासंगिक हैं। आक्रामक धार्मिक बहुसंख्यकवाद, गाली-गलौज की राजनीतिक संस्कृति, नेताओं और सरकारों द्वारा झूठ का प्रचार, प्राकृतिक पर्यावरण की बर्बादी और व्यक्तित्व पंथों का निर्माण, इन सबके कारण ये भारत में कहीं अधिक प्रासंगिक हैं।

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